एक अज़ीब पल


 
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लेखक परिचय-

नाम - सीरवी प्रकाश पंवार
पिता - श्री बाबूलाल सीरवी
माता - श्री मती सुन्दरी देवी
जन्म - 5 जुलाई 1997
पता - अटबड़ा, तह-सोजत सिटी, जिला- पाली राजस्थान

शिक्षा - इंजीनियरिंग(वर्तमान)
रचनाएँ - "बदली हुई हाथों की लकीरे हूँ मै","इश्क़ एक अलग सोच",
"माफ़ करना","ममत्व या मज़बूरी". (कुल 75 कविताएँ और गीत)
संपर्क - 9982661925
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    Dedicated
          to
       amma
         and
       papa




लेखक के शब्द-
अनुभव बड़ी चीज़ हैं क्यों कि यह उम्र पर नहीं, वक्त पर निर्भर करता हैं। समाज के कुछ तत्व अपनी हरकतों से माहिर होते हैं उनकी हरकतों से ही कलम उठती हैं। और उन्ही की हरकतों से अनुभव का वक्त से लेना-देना हैं। पर आजकल कुछ लोग बोलने की आज़ादी जैसी एक स्वतंत्र देश में करते हैं भले  वो आज़ादी अपने माँ-पापा हो या देश।इन में कोई फ़र्क नहीं हैं क्योंकि दोनों अपने अस्तित्व को हो बताते हैं। यह कहानी शायद आपके जीवन में परिवर्तन कर सके। हालाँकि यह मेरी पहली गद्य रचना हैं, अनुभवों की कमी को झेलते हुए एक छोटा सा प्रयास रहा। कोई ग़लती हो तो माफ़ करना।
                                      धन्यवाद
                                   -सीरवी प्रकाश पंवार
                                             (लेखक)
                             




       






    "एक अज़ीब पल"
                (स्वलिखित वास्तविक घटना)



सुबह का वक्त था साहब, हम वही नया थैला लिए नयी उमंग के साथ पुरानी पोशाक पहन कर निकल गया। जहा तक बात हैं नए थेले की,इसमे कोई नई बात नहीं हैं क्योंकि जब रात दिन में बदल जाए तो सुबह थैले में परिवर्तन होगा, भले ही सफलता हासिल हो या न हो। कपडे धोने की तो ही आदत नहीं थी, क्यों कि मेरे नहाने की आदत पुरानी थी तो मै इनके गंदे होने की कोई वजह नहीं समझता था।
उस दिन सब कुछ वही था जो हमेशा नहीं होता था। हालाँकि भले ही वो दौर मेरे लिए दोस्ती का नहीं था पर एक अज़ीज मीत रही थी और शायद वो आगे भी....., पर वक्त के आगे चलने की आदत भी पुरानी हैं। साहब वो सुबह सुबह ही मिल गयी.....और रुकना भी पड़ा क्योकि भले मंजिल उस दिन की हो या आगे की दोनों एक ही थी, और वो इतनी बुरी भी नहीं थी जितने दूसरे थे। पर इस जमाने में यह सब बोलना भी आसान नहीं। पर जो था वही बता रहा हूँ।

 हम पास ही एक पार्क में बैठ कर हाल-चाल पूछ रहे थे क्योकि सवालों के अलावा हमारा मिलने का कोई ओर बहाना भी नहीं था हालाँकि यह सब गाँव में संभव नही होता, पर शहरों की सड़के तो हमेशा नंगी होती हैं साहब, तो इतना तो मै अपने दोस्तों के लिए कर सकता हूँ और शायद ही मेरा तरीका ग़लत होंगा। पर जब तक हाल-चाल खत्म होते हम अपनी पुरानी आदतो से मजबूर होकर किताबो में खो गए। और मेरे को यह बहुत अच्छा लगता था, पर वो आस-पास के वातावरण के साथ वो सटीक नहीं बैठता, पर आदत तो इंसानो को हवस भी बना देती हैं, पर उस दिन कुछ भी सटीक नहीं बैठा।
अब मै इसे तकदीर का खेल कहुँ या मेरी किस्मत का वक्त, कि वो घटना मेरे पास ही होनी थी, हालाँकि इसे घटना कहना आपको उचित नहीं लगेगा पर उस वक्त ने मेरे दिमाग को इतनी ख़तरनाक ढंग से हिला दिया था कि अगले तीन दिन तक चारपाई नहीं छोड़ पाया, और अस्पताल की ओर भी रूख करना पड़ा। और इस बात की सचाई शायद आगे मिल जाए, पर जरूरी भी नहीं।

शायद उस दिन की हरकतें हर एक इंसान के मन को कैसे भी उत्प्रेरित कर सकती हैं, उस दिन बात प्रेम और उत्पीड़न की नहीं थी साहब, बात वक्त और विश्वास की थी। और जब यह वक्त और विश्वास अपनों को गिनाने लगेंगे तो बात ओकात की हो जाती हैं। और यही सब कुछ हो रहा था उस दिन...
साहब जमाना नया वाला चल रहा था तो नयी चीजें देखने को मिल रही थी, वैसा ही पास में एक महाशय के जेब में "चार बोतल रोज़ का,काम मेरा रोज़ का...." जैसा गाना बजना शरू हो गया। हम साहब अमीर बाप की गरीब औलाद हैं तो ट्रिन-ट्रिन वाला ही फ़ोन रखे थे, तो कुछ अजीब से लगते थे गाने वाले फ़ोन। इसमे फ़ोन जितना वज़ूद नही रखता उतने वो गाने वज़ूद रखते। जब गाने ही मयख़ाने की रूख़ करवाए तो उससे कुछ ओर उम्मीद रखना ही बेकार होंगा। और वो ही हरकतें उस महाशय से उम्मीद और तहज़ीब निर्धारित कर रही थी।






पर द्रश्य में बदलाव कुछ अज़ीब सा था, वो महाशय खड़े होकर पहले पेड़ को खुरेडने लगें मानो कोई पुरानी दुश्मनी निकाल रहे हैं फिर महाशय ने तो फ़ोन उठाया और बेधधक बाल काटने वाले की कैची की तरह बोलने लग गए, वाणी तो महाशय की इतनी अच्छी थी कि कान के परदे फट रहे थे। पर जो बात हुई उस पर आते हैं असली मुद्दा तो वो ही हैं...
महाशय - क्या हैं ये, क्यों बार-बार फ़ोन करती हो, मै हर टाइम तेरे से बात ही करूँगा क्या??, तुम्हे तो फ़ोन करने की तमीज़ नहीं हैं, मै अभी क्लास में हूँ, बार-बार डिस्टर्ब करती हो, शर्म आनी चाहिए तुम्हें........
राम राम राम क्या बोले जा रहा था वो।
साहब बात वक्त की हुई हैं, उसे वक्त समझाया जा रहा था जो 9 महीने घर्भ में लेकर दर-बे-दर हर एक पल के लिए भटकती रही। ऐसे तो कहने को बहुत कुछ हैं साहब, पर उस माँ से यही कहूँगा कि

"कोख खाली रहती अग़र माँ तो, वक्त का अहसास नहीं होता,
दुध का दर्द तो होता पर, कानों को आहाट की ज़रूरत नहीं होती,
माना कि तूम ना दुध का दर्द रख सकती और नाजायज़ भी नहीं रह सकती,
पर माँ तेरा नाजायज़ को तराजू से, समन्दर तोलने की ज़रूरत भी नही होती"


साहब वजूदों से वक्त की सलाह ली जाती हैं, पर वो महाशय वक्त के साथ तमीज़ भी समझा रहे थे,
पर उन सब का प्रभाव इतना था कि हम पूरी तरह से हिल चुके थे। बात महाशय के शब्दों पर आकर रुक जाती हैं, शब्दों का ऐसा उपयोग मैने लेखन जगत में कभी नहीं सुना। वैसे ऐसे शब्दों का उपयोग शायद फ़ोन की ध्वनि में ही छुपा हुआ था। बात तब उठाऊ की आगे वाले से ऐसे बात क्यों कर रहा हैं तो शायद वहाँ मै गलत हो सकता हूँ, और यह सही भी हैं क्यों की 21 वीं सदी जो चल रही हैं। पर जब बात शर्म, तमीज़, डिस्टर्ब और टाइम की आ जाए तब मेरा भी लिखना और बोलना स्वभाविक हैं और जब यही बात पैदा करने वाले पर आ जाए तो यह मेरा हक़ भी बन जाता हैं। पर अब बात आगे भी कुछ अलग अंदाज में बढ़ी,
फ़ोन-बेटा मै तो बस.........
इतना सा सुनने क बाद में महाशय ने वापस अपने भजन शरू कर दिए। और वो दोहराना भी मेरे लिए अच्छा नहीं होंगा।
फ़ोन - बेटा बस मै पूछ रही थी कि खाना.....
           टू.. टू...टू....
एक पल के लिए धड़कने साँसे रोक रही थी, आँखों ने देखना बंद कर दिया बस निठल्ला हो कर महाशय की महानता समझ रहा था। मेरा शरीर रेगिस्तान कि रेत की भाँति गर्म हो रहा था, एक पल के लिए आँखों के सामने से सब कुछ गायब था, शायद ख़ुदा उस पल के बाद सब कुछ छिनना चाहता था पर एक हलचल ने मुझे गिराने की हिमाक़त की। तब ही मेरी मीत के कंधो पर जा गिरा।
कुछ पंक्तिया शायद अब आप को समाज आ जाए


"आखिरकार....
साहब माफ़ करना,
सोचने की बात हैं कि,
"ग़ज़ब हो रहा था"
या
"सब कुछ ग़ज़ब हुआ था"
साहब.....
इसमें अज़ीब यह नहीं कि,
जिसके नाम की साँसे चल रही थी,
वो धड़कने ही तोड़ रहा था,
अज़ीब तो यह था कि,
आख़िरकार....
सब कुछ ग़ज़ब हो रहा था,
ना कि ग़ज़ब हुआ था,
और साहब.....
सबसे अजीब यह हैं कि,
मेरी भी वज़ह यही हैं।"


अब बात आगे बढ़ाऊ उसके पहले बात ओकात पर आकर रुक गयी, क्यों की अभी तक आप पूर्णतया समझ गए होंगे की फ़ोन पर कौन था। जब हम बचपन में मिट्टी के घरौंदे बनाते थे तो उसे तोड़ने भी अपने पलड़े में आता था, पर आज जब उसे दुनिया दिखाने वाले को वक्त का अहसास दिलाता हैं और विश्वास के झूठे मायने समझाता हैं तमीज तक की बात करता हैं तो शायद बात ओकात की करना जायज़ होंगा। पर इसमें एक बात अज़ीब थी कि मेरी आँखे लाल जरूर थी पर मेरे हाथ मेरे मीत पकड़ रखें थे क्यों कि सदी 21 वीं थी और वो महाशय 25 वीं की बाते थोप रहे थे।
कुछ कहे बिना मै आँसू लिए अपने मीत के साथ वहाँ से निकलने वाला ही था कि महाशय के साथ बैठी एक लड़की बोलने लगी, हालाँकि जो वो बोली मुझे कुछ भी समझ नहीं आया क्योकि वो महारानी जी इंग्लैंड में खड़े होकर भारत की हिन्दी बोल रही थी, फिर मेरी मीत ने बताया की वो महाशय की वकील बन रही हैं जो उनकी पैरवी करके महाशय को सांत्वना दे रही हैं। और महाशय के माँ के बचे-कुछे कपडे उतार रही थी।
वैसे भी उस पुरे बवंडर की वजह वो वकील साहिबा थी।
अब लोग मुझे इश्क़ के ख़िलाफ़त में समझते हैं पर मेरे कहने का मतलब यह नहीं हैं कि इश्क़ खराब हैं, साहब वो आपके हक का हैं आपका हक छीनने वाला मै कौन, पर इश्क़ की परिभाषा को तोड़कर अगर आप अपने अस्तित्व या आशियाने के खिलाफ कुछ बोलेंगे या करेंगे तो साहब मेरा भी हक़ हैं की में उस माँ के लिए लिखूँ। और अगर आपका हक हैं इश्क़ करना, तो पैदा करने वाला का भी कुछ हक बनता होंगा। भले ही वो माँ-बाप हो या देश हो। क्यों कि साहेब हो साहिबा बोलने की आजादी के भी कुछ कायदे कानून होते हैं।
(कथित घटना लेखक के जीवन से संबंध रखती हैं अतः इसके किसी भी हिस्से की प्रतिलिपि करने के पहले लेखक से पूर्ण आज्ञा लेवें।
इस गद्य रचना को बदलने के सारे अधिकार लेख़क के पास संरक्षित हैं।
{pics creator and extra help by - s.p., s.s., a.k. and b.m.p.}

जय हिन्द जय भारत
"I LOVE MY INDIA"
          -धन्यवाद

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